जीएसटी का पारित होना असली राष्ट्रवाद
कुछ माह पहले मैं दिल्ली में एक आयोजन में गया था, जिसमें नफासत से वस्त्र पहने, वक्तृत्व में माहिर भारतीय और कुछ विदेशी मौजूद थे। वहां एक अलग से युवा ने प्रवेश किया। किसी ने पहचाना कि यह तो किसी हिंदी टेलीविजन से है। ऐसा लगा कि वह वहां ज्यादातर उपेक्षित ही रह गया, जब तक कि किसी ने उसे उकसा नहीं दिया। उसके बाद तो जेएनयू विवाद पर ऊंची आवाज में कर्कश बहस छिड़ गई। उसने हिंदू राष्ट्रवादी रुख का बहुत भावावेश के साथ बचाव किया, लेकिन उसे जल्दी ही शोर मचाकर चुप कर दिया गया। खुद को अपमानित महसूस कर वह जल्दी ही वहां से चला गया। उसके जाते ही ‘धर्मनिरपेक्ष-उदारवादियों’ ने राहत महसूस की, लेकिन इससे पहले उन्होंने ‘सनकी विचारों’ वाले ‘निम्नस्तरीय’ उस व्यक्ति पर जमकर गुस्सा उतारा।
मैं उसकी राष्ट्रवाद संबंधी दलीलों से सहमत नहीं था, लेकिन अपना दृष्टिकोण रखने के उसके अधिकार का मैंने पूरा बचाव किया। उसके साथ जो हुआ वह मुझे अच्छा नहीं लगा। बेशक, अल्पसंख्यकों के प्रति वह संकुचित मानसिकता, कट्टरपंथ दिखा रखा था, लेकिन वह भी तो सारी कमजोरियों के साथ एक मानव था। उसे उतनी अच्छी शिक्षा नहीं मिली। उसकी कमजोर अंग्रेजी ने सामाजिक स्तर पर उसकी स्थिति नाजुक बना दी थी। उसे सहानुभूति की बजाय खुद को महत्वपूर्ण समझने वाले उदारवादियों की ओर से दंभपूर्ण तिरस्कार िमला। यह वर्ग, पहचान की विविधता को तो प्रोत्साहित करता है, लेकिन विचारों की विविधता के प्रति असहिष्णु है।
पिछले दो वर्षों में यह दुखद विभाजन बढ़ा है, जिसकी अपेक्षा हमने प्रधानमंत्री मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ चुने जाने के बाद नहीं की थी। मैं उदारवादी हूं और हिंदू राष्ट्रवादियों के मुस्लिम विरोधी पूर्वग्रहों से इत्तेफाक नहीं रखता। मैं गोमांस नहीं खाता, लेकिन किसी के खाने के अधिकार का पूरा बचाव करूंगा। दादरी में हिंसा से मैं व्यथित था और प्रधानमंत्री के देरी से प्रतिक्रिया देने पर विचलित हुआ। स्वामी आदित्यनाथ द्वारा अखलाक के परिवार को गोहत्या के आरोप में गिरफ्तार करने की अजीब मांग ने तो मुझे रोष से भर दिया। गुजरात में दलितों के खिलाफ गोरक्षकों की हिंसा की मैंने निंदा की। इस सबके बावजूद मेरे साथी उदारवादियों के अहंकार ने भी मुझे दुखी कर दिया। सहिष्णुता के नाम पर उन्होंने उन लोगों के साथ उतनी ही असहिष्णुता दिखाई, जिनके विचार उनसे भिन्न हैं। शायद यही वजह है कि उदारवाद देश में बढ़ नहीं रहा है।
हम धर्मनिरपेक्ष उदारवादी समान एलीट स्कूलों व यूनिवर्सिटी में जाते हैं, जहां पढ़ाने वाले उदारवादी और वामपंथी रुझान वाले होते हैं। किसी हिंदू राष्ट्रवादी के लिए एलीट कॉलेज में छात्र या शिक्षक के रूप में प्रवेश पाना कठिन ही होता है। संभव है कमजोर अंग्रेजी इसकी वजह हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उदारवादी एकाधिकार के लिए पक्षपात तो है (अजीब है कि आरक्षण के कारण दलित या ओबीसी के लिए एलीट रैंक में प्रवेश पाना तुलनात्मक रूप से आसान है)। यदि आप भी मेरी तरह मानते हैं कि हिंदुत्व विचारधारा सैद्धांतिक रूप से गलत जमीन पर टिकी है, तो हमें इसके समर्थकों को शीर्ष विश्वविद्यालयों में जाकर बहस में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। केवल इसी तरह भारत में वास्तविक कंजर्वेटिव बुद्धिजीवी पैदा होंगे, जिनकी दलीलें पुराणों से ली गई टेक्नोलॉजी फेंटसी की बजाय पुष्ट किए जा सकने वाले तथ्यों पर आधारित होंगी। उन्हें विद्रुप बनाकर पेश करने और उनके साथ हावी होकर पेश आने से हम उनके विद्वेष को और मजबूत करते हैं और उन्हें हिंदुत्व में और गहरे झोंक देते हैं। नतीजे में उदारवादी विचारधारा छोटे कुलीन वर्ग तक ही सीमित रह जाती है।
धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों का अहंकार न सिर्फ नैतिक रूप से गलत है, यह खराब चुनाव रणनीति भी है। यदि कांग्रेस या वाम दल मतदाता को उदारवादी विचारधारा में लाना चाहते हैं, तो टेलीविजन के परदे पर हर रात प्रवक्ताओं की ओर से तिरस्कारपूर्ण बातों से वे सफल नहीं होंगे। उदारवादी अपना घोष वाक्य याद रखें, ‘अापकी बात से मैं सहमत नहीं हूं, लेकिन जान देकर भी मैं इसे कहने के अापके अधिकार की रक्षा करूंगा।’ इसकी बजाय वे ‘आपकी बात से मैं असहमत हूं इसलिए चुप बैठो, मूर्ख।’ जैसा व्यवहार करते हैं, जो लोगों को दूर करता है। उदारवादी आदर्श इतना कीमती है कि इसे किसी राजनीतिक दल या अभिमानी बुद्धिजीवियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह दक्षिण बनाम वाम का भी मामला नहीं है। सारे भारतीयों को उदारवादी और बहुलतावादी भारत के विचार को अपनाना चाहिए।
पिछले एक साल में बाहर दुनिया में भी असहिष्णुता बढ़ी है। यह राष्ट्रवाद से जुड़ी है और बहुत नुकसान कर रही है। यह लोगों को विदेशियों के खिलाफ कर रही है, आव्रजकों के लिए सीमा बंद करने की पक्षधर और मुक्त व्यापार के खिलाफ है। यह विश्व को शांत व समृद्ध बनाने वाली 70 साल की शानदार विरासत पर पानी फेरने पर तुली हैै। भारत में इस राष्ट्रवाद ने लोगों को अपनी भारतीयता की बजाय हिंदू, मुस्लिम और दलित पहचान के प्रति जागरूक बनाया है।
राष्ट्रवाद के कारण ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हुआ, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प व समर्थक इसी वजह से विदेशियों व आव्रजकों के खिलाफ बोल रहे हैं। वे चीन को नौकरिया छीनने वाला बताकर उससे आयात रोकना चाहते हैं। हम प्राय: राष्ट्रवाद को सकारात्मक रूप में लेते हैं, लेकिन यह न भूलें कि इसने दुनिया को बहुत नुकसान पहुंचाया है। 19वीं सदी में इसके कारण यूरोपीय देशों ने एशिया व अफ्रीका के भारत जैसे देशों को गुलाम बनाया। 20वीं सदी में दो विश्वयुद्ध हुए। हिटलर गंदे राष्ट्रवाद का सबसे नाटकीय उदाहरण है। उसे अार्यों की श्रेष्ठता का मुगालता था और यहूदियों को निम्न मानकर उसने गैस चैम्बरों में 80 लाख यहूदियों की हत्या की।
यदि हम वाकई सहिष्णु, उदारवादी भारतीय समाज चाहते हैं तो हमें एक-दूसरे को समान समझना होगा- चाहे हम हिंदू, मुस्लिम या दलित क्यों न हों। एक अच्छा राष्ट्रवादी अपने देश की महानता बताने के लिए नारे नहीं लगाता, उसमें एक शांतिपूर्ण आत्म-विश्वास होता है। उसे देश की ताकत व कमजोरियों का पता होता है। भारतीय राष्ट्रवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तो 2 अगस्त, बुधवार की ऐतिहासिक रात को नज़र आया जब सारे दलों ने असहमति परे रखकर भारतीय टैक्स इतिहास के सबसे बड़े सुधार के पक्ष में वोट दिया। यह ताकतवर व समृद्ध भारत बनाएगा और यह निर्धनतम भारतीय के लिए भी मददगार होगा।
मैं उसकी राष्ट्रवाद संबंधी दलीलों से सहमत नहीं था, लेकिन अपना दृष्टिकोण रखने के उसके अधिकार का मैंने पूरा बचाव किया। उसके साथ जो हुआ वह मुझे अच्छा नहीं लगा। बेशक, अल्पसंख्यकों के प्रति वह संकुचित मानसिकता, कट्टरपंथ दिखा रखा था, लेकिन वह भी तो सारी कमजोरियों के साथ एक मानव था। उसे उतनी अच्छी शिक्षा नहीं मिली। उसकी कमजोर अंग्रेजी ने सामाजिक स्तर पर उसकी स्थिति नाजुक बना दी थी। उसे सहानुभूति की बजाय खुद को महत्वपूर्ण समझने वाले उदारवादियों की ओर से दंभपूर्ण तिरस्कार िमला। यह वर्ग, पहचान की विविधता को तो प्रोत्साहित करता है, लेकिन विचारों की विविधता के प्रति असहिष्णु है।
पिछले दो वर्षों में यह दुखद विभाजन बढ़ा है, जिसकी अपेक्षा हमने प्रधानमंत्री मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ चुने जाने के बाद नहीं की थी। मैं उदारवादी हूं और हिंदू राष्ट्रवादियों के मुस्लिम विरोधी पूर्वग्रहों से इत्तेफाक नहीं रखता। मैं गोमांस नहीं खाता, लेकिन किसी के खाने के अधिकार का पूरा बचाव करूंगा। दादरी में हिंसा से मैं व्यथित था और प्रधानमंत्री के देरी से प्रतिक्रिया देने पर विचलित हुआ। स्वामी आदित्यनाथ द्वारा अखलाक के परिवार को गोहत्या के आरोप में गिरफ्तार करने की अजीब मांग ने तो मुझे रोष से भर दिया। गुजरात में दलितों के खिलाफ गोरक्षकों की हिंसा की मैंने निंदा की। इस सबके बावजूद मेरे साथी उदारवादियों के अहंकार ने भी मुझे दुखी कर दिया। सहिष्णुता के नाम पर उन्होंने उन लोगों के साथ उतनी ही असहिष्णुता दिखाई, जिनके विचार उनसे भिन्न हैं। शायद यही वजह है कि उदारवाद देश में बढ़ नहीं रहा है।
हम धर्मनिरपेक्ष उदारवादी समान एलीट स्कूलों व यूनिवर्सिटी में जाते हैं, जहां पढ़ाने वाले उदारवादी और वामपंथी रुझान वाले होते हैं। किसी हिंदू राष्ट्रवादी के लिए एलीट कॉलेज में छात्र या शिक्षक के रूप में प्रवेश पाना कठिन ही होता है। संभव है कमजोर अंग्रेजी इसकी वजह हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उदारवादी एकाधिकार के लिए पक्षपात तो है (अजीब है कि आरक्षण के कारण दलित या ओबीसी के लिए एलीट रैंक में प्रवेश पाना तुलनात्मक रूप से आसान है)। यदि आप भी मेरी तरह मानते हैं कि हिंदुत्व विचारधारा सैद्धांतिक रूप से गलत जमीन पर टिकी है, तो हमें इसके समर्थकों को शीर्ष विश्वविद्यालयों में जाकर बहस में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। केवल इसी तरह भारत में वास्तविक कंजर्वेटिव बुद्धिजीवी पैदा होंगे, जिनकी दलीलें पुराणों से ली गई टेक्नोलॉजी फेंटसी की बजाय पुष्ट किए जा सकने वाले तथ्यों पर आधारित होंगी। उन्हें विद्रुप बनाकर पेश करने और उनके साथ हावी होकर पेश आने से हम उनके विद्वेष को और मजबूत करते हैं और उन्हें हिंदुत्व में और गहरे झोंक देते हैं। नतीजे में उदारवादी विचारधारा छोटे कुलीन वर्ग तक ही सीमित रह जाती है।
धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों का अहंकार न सिर्फ नैतिक रूप से गलत है, यह खराब चुनाव रणनीति भी है। यदि कांग्रेस या वाम दल मतदाता को उदारवादी विचारधारा में लाना चाहते हैं, तो टेलीविजन के परदे पर हर रात प्रवक्ताओं की ओर से तिरस्कारपूर्ण बातों से वे सफल नहीं होंगे। उदारवादी अपना घोष वाक्य याद रखें, ‘अापकी बात से मैं सहमत नहीं हूं, लेकिन जान देकर भी मैं इसे कहने के अापके अधिकार की रक्षा करूंगा।’ इसकी बजाय वे ‘आपकी बात से मैं असहमत हूं इसलिए चुप बैठो, मूर्ख।’ जैसा व्यवहार करते हैं, जो लोगों को दूर करता है। उदारवादी आदर्श इतना कीमती है कि इसे किसी राजनीतिक दल या अभिमानी बुद्धिजीवियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह दक्षिण बनाम वाम का भी मामला नहीं है। सारे भारतीयों को उदारवादी और बहुलतावादी भारत के विचार को अपनाना चाहिए।
पिछले एक साल में बाहर दुनिया में भी असहिष्णुता बढ़ी है। यह राष्ट्रवाद से जुड़ी है और बहुत नुकसान कर रही है। यह लोगों को विदेशियों के खिलाफ कर रही है, आव्रजकों के लिए सीमा बंद करने की पक्षधर और मुक्त व्यापार के खिलाफ है। यह विश्व को शांत व समृद्ध बनाने वाली 70 साल की शानदार विरासत पर पानी फेरने पर तुली हैै। भारत में इस राष्ट्रवाद ने लोगों को अपनी भारतीयता की बजाय हिंदू, मुस्लिम और दलित पहचान के प्रति जागरूक बनाया है।
राष्ट्रवाद के कारण ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हुआ, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प व समर्थक इसी वजह से विदेशियों व आव्रजकों के खिलाफ बोल रहे हैं। वे चीन को नौकरिया छीनने वाला बताकर उससे आयात रोकना चाहते हैं। हम प्राय: राष्ट्रवाद को सकारात्मक रूप में लेते हैं, लेकिन यह न भूलें कि इसने दुनिया को बहुत नुकसान पहुंचाया है। 19वीं सदी में इसके कारण यूरोपीय देशों ने एशिया व अफ्रीका के भारत जैसे देशों को गुलाम बनाया। 20वीं सदी में दो विश्वयुद्ध हुए। हिटलर गंदे राष्ट्रवाद का सबसे नाटकीय उदाहरण है। उसे अार्यों की श्रेष्ठता का मुगालता था और यहूदियों को निम्न मानकर उसने गैस चैम्बरों में 80 लाख यहूदियों की हत्या की।
यदि हम वाकई सहिष्णु, उदारवादी भारतीय समाज चाहते हैं तो हमें एक-दूसरे को समान समझना होगा- चाहे हम हिंदू, मुस्लिम या दलित क्यों न हों। एक अच्छा राष्ट्रवादी अपने देश की महानता बताने के लिए नारे नहीं लगाता, उसमें एक शांतिपूर्ण आत्म-विश्वास होता है। उसे देश की ताकत व कमजोरियों का पता होता है। भारतीय राष्ट्रवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तो 2 अगस्त, बुधवार की ऐतिहासिक रात को नज़र आया जब सारे दलों ने असहमति परे रखकर भारतीय टैक्स इतिहास के सबसे बड़े सुधार के पक्ष में वोट दिया। यह ताकतवर व समृद्ध भारत बनाएगा और यह निर्धनतम भारतीय के लिए भी मददगार होगा।
Published on August 23, 2016 04:26
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