किसान आंदोलन - 1
जब मैं किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता, किसानों द्वारा आत्महत्या, किसानों के पास खाने भर का अनाज न उतपन्न होने जैसी समस्याओं को पढ़ता और सुनता हूँ तो लगता है कि या तो बिग बाजार, स्पेंसर, रिलायंस फ्रेश आदि में बिकने वाले दाल, सब्जी, मसाले और फल नकली हैं या फिर किसी किसान के खेत से चुराकर लाये गए हैं।
भैया ! लोग चाहते हैं कि सारा ज्ञान एक पोस्ट या कमेंट में ही मिल जाये। अगर ये सम्भव होता तो इतने कोर्स और किताबों की क्या जरूरत थी?
"प्रोडक्टिव और नॉन-प्रोडक्टिव लोन" अपने आप में विस्तृत और गहन अध्ययन का विषय है।
"बिगड़ने में कम समय लगता है और सुधरने में ज्यादा" यानि बिगड़ते हुए 70 साल हो गए तो सुधार कितना समय लेगा, इसकी कल्पना किये बिना ही तत्काल वांछित लाभ के लिए हिंसक आंदोलन को किसान के नाम पर जायज ठहराया जा रहा है।
आप समझना ही नहीं चाहते कि आरक्षण, गरीबी, किसानों, मजदूरों का नेतृत्व करते करते लोग राजनेता बनकर मलाई काट रहे हैं और आप आज भी उन समस्याओं से घिरे हुए हैं फिर भी राजनीति की वकालत कर रहे हैं। पहले विश्वसनीय नेतृत्व लाइए तब आंदोलन और राजनीती की सोचिये।
एक होता है livlihood
दूसरा profit
एक है सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग
दूसरा असीमित विकल्पों का अनुचित उपभोग
एक है संघर्ष
दूसरा षड्यंत्र
ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनमे हम सब अपनी मति अनुसार सेलेक्टिव होकर अर्थ का अनर्थ करने लगते हैं।
सरकार को चाहिए कि सारे आंदोलनकारी किसानों को घेरकर उनके घरवालों से जमीन के कागजात मंगाकर चेक करें कि कौन किसान है, कौन नौटँकीबाज?
कौन आजीविका चलाने वाला किसान है और कौन व्यापार करने वाला?
कौन जरूरतमंद है और कौन मलाई मारने वाला?
ए सी में बैठने वालों को गरियाना शगल बन चुका है। लोग ये समझने को तैयार नहीं है कि आंकड़े कहाँ से आते हैं, एनालिसिस कौन करता है, प्रोपोजल कौन बनाता है और नीति कौन बनाता है !
क्यों न उन सबकी भी जन्मकुंडली खंगाली जाये जिन किसानों ने अपने बहू, बेटे, बेटियां नकल कराकर पास कराए, फिर आशा, शिक्षामित्र, लेखपाल, प्रधान और ग्राम विकास अधिकारी बनाने के लिए जमीन बेचकर, महाजन से कर्ज लेकर रिश्वत दी। आज ये लोग घर बैठे वोटर लिस्ट, जनसंख्या, कृषि संबंधी आंकड़े सरकार को भेजते हैं। इन्ही धरतीपुत्रों की वजह से फसल मुआवजा 5 रूपये का चेक मिलता है और मरे हुए लोग वोटर लिस्ट में रह जाते हैं, जीवित व्यक्ति गायब रहते हैं।
मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कांग्रेस राज "रामराज्य" था, कहीं कोई समस्या नहीं थी, बड़ी समस्याएं इमरजेंसी लगाकर सुलझाई जाती थीं और छोटी मोटी आतंकवादियों और घोटालों द्वारा !
भाई ! अगली बार कोई सरकार नहीं चुननी, जादूगर चुनना है।
यहां इस देश में टेबलेट (कड़वी दवाई की गोली) नहीं बुलेट (बंदूक की गोली) ही चाहिए क्योंकि अगर आप हिंसक है तो लोकतांत्रिक सरकार से गांधीगिरी की अपेक्षा अनुचित है।
सभी राज्य और केंद्र सरकार को इस्तीफा देना चाहिए ताकि किसान सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर कोऑपरेटिव स्टोर्स चला सकें। मनमाने दाम पर बेच सकें ताकि कलुआ का गेहूं भूरे 100 रूपये किलो खरीदे और भूरे का चावल कलुआ 150 रूपये किलो ! अपना क्या है अपुन तो धनिया, मिर्च, टमाटर, आलू, पपीता, केला, गेहूं, धान अपने खेत में और लौकी, तौरी, करेला अपने बूंगे या बिटौड़े पर उगा लेंगे। पापड़, सिंवई, बड़ी तो चारपाई पर भी सुखाये जा सकते हैं।Prakash Vir Sharma
भैया ! लोग चाहते हैं कि सारा ज्ञान एक पोस्ट या कमेंट में ही मिल जाये। अगर ये सम्भव होता तो इतने कोर्स और किताबों की क्या जरूरत थी?
"प्रोडक्टिव और नॉन-प्रोडक्टिव लोन" अपने आप में विस्तृत और गहन अध्ययन का विषय है।
"बिगड़ने में कम समय लगता है और सुधरने में ज्यादा" यानि बिगड़ते हुए 70 साल हो गए तो सुधार कितना समय लेगा, इसकी कल्पना किये बिना ही तत्काल वांछित लाभ के लिए हिंसक आंदोलन को किसान के नाम पर जायज ठहराया जा रहा है।
आप समझना ही नहीं चाहते कि आरक्षण, गरीबी, किसानों, मजदूरों का नेतृत्व करते करते लोग राजनेता बनकर मलाई काट रहे हैं और आप आज भी उन समस्याओं से घिरे हुए हैं फिर भी राजनीति की वकालत कर रहे हैं। पहले विश्वसनीय नेतृत्व लाइए तब आंदोलन और राजनीती की सोचिये।
एक होता है livlihood
दूसरा profit
एक है सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग
दूसरा असीमित विकल्पों का अनुचित उपभोग
एक है संघर्ष
दूसरा षड्यंत्र
ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनमे हम सब अपनी मति अनुसार सेलेक्टिव होकर अर्थ का अनर्थ करने लगते हैं।
सरकार को चाहिए कि सारे आंदोलनकारी किसानों को घेरकर उनके घरवालों से जमीन के कागजात मंगाकर चेक करें कि कौन किसान है, कौन नौटँकीबाज?
कौन आजीविका चलाने वाला किसान है और कौन व्यापार करने वाला?
कौन जरूरतमंद है और कौन मलाई मारने वाला?
ए सी में बैठने वालों को गरियाना शगल बन चुका है। लोग ये समझने को तैयार नहीं है कि आंकड़े कहाँ से आते हैं, एनालिसिस कौन करता है, प्रोपोजल कौन बनाता है और नीति कौन बनाता है !
क्यों न उन सबकी भी जन्मकुंडली खंगाली जाये जिन किसानों ने अपने बहू, बेटे, बेटियां नकल कराकर पास कराए, फिर आशा, शिक्षामित्र, लेखपाल, प्रधान और ग्राम विकास अधिकारी बनाने के लिए जमीन बेचकर, महाजन से कर्ज लेकर रिश्वत दी। आज ये लोग घर बैठे वोटर लिस्ट, जनसंख्या, कृषि संबंधी आंकड़े सरकार को भेजते हैं। इन्ही धरतीपुत्रों की वजह से फसल मुआवजा 5 रूपये का चेक मिलता है और मरे हुए लोग वोटर लिस्ट में रह जाते हैं, जीवित व्यक्ति गायब रहते हैं।
मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कांग्रेस राज "रामराज्य" था, कहीं कोई समस्या नहीं थी, बड़ी समस्याएं इमरजेंसी लगाकर सुलझाई जाती थीं और छोटी मोटी आतंकवादियों और घोटालों द्वारा !
भाई ! अगली बार कोई सरकार नहीं चुननी, जादूगर चुनना है।
यहां इस देश में टेबलेट (कड़वी दवाई की गोली) नहीं बुलेट (बंदूक की गोली) ही चाहिए क्योंकि अगर आप हिंसक है तो लोकतांत्रिक सरकार से गांधीगिरी की अपेक्षा अनुचित है।
सभी राज्य और केंद्र सरकार को इस्तीफा देना चाहिए ताकि किसान सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर कोऑपरेटिव स्टोर्स चला सकें। मनमाने दाम पर बेच सकें ताकि कलुआ का गेहूं भूरे 100 रूपये किलो खरीदे और भूरे का चावल कलुआ 150 रूपये किलो ! अपना क्या है अपुन तो धनिया, मिर्च, टमाटर, आलू, पपीता, केला, गेहूं, धान अपने खेत में और लौकी, तौरी, करेला अपने बूंगे या बिटौड़े पर उगा लेंगे। पापड़, सिंवई, बड़ी तो चारपाई पर भी सुखाये जा सकते हैं।Prakash Vir Sharma
Published on June 11, 2017 19:57
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