एक गुमनाम आईआईटीयन

वो सुबह की ठंडी हवा की तरह यूँ ही टकरा जाते। कभी तुलसी घाट पर स्न्नान करते तो कभी विश्वनाथ गली के भेडियाधसान में पान खाते।

किसी सुबह हम देखते कि वो संकटमोचन में बंदरो को चना गुड़ खिला रहें हैं तो शाम को भदैनी की एक म्यूजिकल शॉप के अंदर बांसुरी बजा रहें हैं।

ललाट पर चंदन का एक छोटा सा टीका, बदन पर साधारण सा कुर्ता-पायजामा, कंधे पर झोला, पैरों में हवाई चप्पल और हाथों में किताबें।

उनको देखते ही लगता कि सत्यजीत रे की फिल्मों का कोई नायक है, जो कलकत्ता की गलियों से निकलकर बनारस की गलियों में उन अबूझ रहस्यों की तलाश कर रहा है, जो शायद उसे कभी नहीं मिलेंगी।

मुझे याद है..पहली बार वो कब टकराए थे।

शायद दो हजार ग्यारह का अप्रैल जा रहा था। घाट के पत्थर आग उगलने को बेताब बैठे थे। तब ऐसा लगता था कि ये छात्र जीवन भी बनारस के पत्थरों जैसा हो चुका है।

तब मैं उस ताप को कम करने के लिए दशाश्वमेध घाट की गंगा आरती में तबला बजाया करता था। रोज देखता कि एक शख़्स मेरे पास आकर धीरे से बैठ जाता है और पूरी आरती के दौरान किसी तपस्वी की भांति आंखें बंद किये न जाने किसका ध्यान करता रहता है।

एक बार इसी दौरान उन्होंने मेरा नाम पूछा था। फिर उसके बाद शुरू हो गई थी हाथ उठाकर महादेव कहने की वही प्राचीन बनारसी परम्परा।

बाद के कई सालों में वो मुझसे जब भी मिलते, जहां भी मिलते, अभिवादन के नाम पर उधर से वो हाथ उठा देते, इधर से मैं। कहीं धीरे से मुंह से निकल जाता, महादेव।

कभी-कभी ये अभिवादन दिन में कई बार हो जाता। जिस दिन ज्यादा हो जाता, उस दिन इधर से मैं भी हंस देता, उधर से वो भी हंस देते।

इससे ज़्यादा न मैनें उनसे बात करने में कभी रुचि दिखाई, न ही कभी उन्होंने।

मेरा इस दर्शन पर गहरा विश्वास था कि प्रेम की भाषा मौन है। इससे ज्यादा बोलने की ज़रूरत भी क्या है।

लेकिन उनके हाथों में क़िताबों की विविधता देखकर उनको जानने की तीव्र इच्छा होती कि आख़िर ये आदमी करता क्या है ?

लेकिन तब अपने जीवन की किताब के पन्ने इस कदर वक्त को कैद कर चुके थे कि दूसरे किसी को जानने का वक्त न मिल सका।

ये सिलसिला करीब सात-आठ साल चला।

एक सुबह की बात है। मैनें देखा वही व्यक्ति अस्सी घाट की एक चाय की दुकान पर हाथों में कलम लेकर एक चेक को बार-बार उलट-पलट रहा है। इधर से उधर…कभी किसी को फोन लगा रहा है, कभी आसमान की तरफ़ देख रहा है।

उनके शांत व्यक्तित्व में एक अजीब किस्म की बेचैनी सी दिख रही है। दाढ़ी बड़ी हो चली है। ऐसा लगता है कि उनकी तबियत ठीक नही है। अचानक से वो कुछ ज्यादा ही बूढ़े लगने लगें हैं।

मैंने उनकी तरफ हाथ उठाकर अभिवादन किया, वो मुस्कराए। और फिर चाय वाले के पास चला गया। देख रहा वहीं मेरे एक मित्र शास्त्री जी खड़े हैं..जो एक संस्कृत विद्यालय में कर्मकांड पढ़ते भी थे और छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाते भी थे।

किसी जमाने में गर्मी की छुट्टियों में हॉस्टल बन्द हो जाने के बाद एक महीने के लिए मैं उनका रूम पार्टनर रहा था। मुझे देखते ही पूछा, “भैया, आप इनको कैसे जानते हैं ?”

मैंने कहा, “नही जानता…कौन हैं। “

वो हँसने लगे.. “का मजाक कर रहें हैं?”

मैंने कहा, “भाई कसम से, नहीं जानता कौन हैं, बस आते-जाते महादेव हो जाता है।”

उन्होंने बताया…ये आईआईटीयन हैं। देश के बड़े-बड़े साइंस प्रॉजेक्ट को लीड किया है। रिटायर्ड हो गए हैं..”

मैंने पूछा, “तब काहें यहाँ भटक रहे हैं, दिन भर ..?”

उन्होंने बताया बनारस में जितने संस्कृत विद्यालय और भोजनालय चलते हैं, सबमें गुप्त दान करते हैं। आपके हॉस्टल के पीछे जो विद्यालय चल रहा है न, उन बच्चों के लिए आज दान कर रहे हैं, अभी उसी के प्राचार्य का इंतज़ार कर रहें हैं।”

मैंने आश्चर्य भरे लहजे में कहा, ये दान करते हैं, इनको तो खुद दान की जरूरत है ?

उन्होंने कहा,”जी, इनकी ट्रेन है हरिद्वार की। चाहते हैं, दान दे दें तब जाएं।”

मैंने गौर से देखा, वो मेरी तरफ देखकर मुस्करा रहे थे। उनके हाथ कांप रहे थे। वो सच में बूढ़े हो चले थे।

आखिरकार धीरे-धीरे पता चल ही गया कि वो आदमी अपने जीवन की सारी कमाई बनारस के संस्कृत विद्यालयों और भोजनालयों में दान कर चुका है।

इतना जानकर उनके बारे में एक अगाध श्रद्धा उतपन्न हुई। मुख से सहसा निकल गया था, साधु-साधु।

बाद के दिनों में उनसे कई बार बात भी की लेकिन उन्होंने न ही अपने आईआईटीयन होने का ढोल पीटा, न ही बहुत धनवान होने का। अगर मैं कुछ पूछता तो वो बात बदल देते और मेरे ही बारे में पूछने लगते।

लेकिन पुण्य के कार्य उस फूल के सुगंध की तरह होते हैं, जिनको फैलने से कोई रोक नही सकता।

दो हजार अठारह के दौरान मैनें एक बार प्रयास किया कि उनके बारे में लिखूं..लेकिन उन्होंने कहा, नही राव साहब, इन सब चीजों की कोई इच्छा नहीं।”

मै जब भी उनसे सवाल करता वो उठकर चल देते, “चलते हैं राव साहब।”

मैं करेक्ट करता, राव नही सर, राय…

वो हंसते और फिर बनारस की भीड़ में विलीन हो जाते।

आज जब कुंभ मेला में एक आईआईटीयन बाबा के पीछे पूरे देश की मीडिया लगी है। धार्मिक रूप से निरक्षर पत्रकारों ने आईआईटी के नाम पर उनका उठना-बैठना, खाना-पीना मुहाल कर रखा है।

तब मुझे पंद्रह साल पहले मिले उस दानवीर गुमनाम आईआईटियन की याद आ रही है, जो हर साल संस्कृत की शिक्षा के लिए, तीर्थयात्रियों और विद्यार्थियों के भोजन के लिए गुप्त दान देता और देखते ही देखते बनारस की गलियों में विलीन हो जाता।

आज से कुछ साल पहले पैदा हुए यूट्यूबरों, जियो आने के बाद बुद्धिजीवी बने मूर्ख पत्रकारों और एक्स पर उपस्थित कीपैड क्रांतिकारियों को पता होना चाहिए कि जितने साधु और महापुरुष भगवा चोला ओढ़कर कुम्भ में धूनी रमा रहे हैं।

उससे ज्यादा साधु सड़को पर चुपचाप धर्म और मनुष्यता के लिए अपना सर्वस्व दानकर बनारस की किन्ही गलियों में विलीन हो चुके हैं।

इनको न अपने जीवन में मठ और महामंडलेश्वर होने की अभीप्सा है और न ही अपने आप को लोकप्रिय बनाने की लालसा।

ये साधु कुम्भ में दिख भी गए, तो न कोई पत्रकार खोज पाएगा न ही यूट्यूबर।

आज धर्म की जय हो कि समूची धूरी जितना कुंभ के साधुओं पर टिकी है, उससे कहीं ज्यादा इन गुमनाम धुरंधरों पर टिकी है।

अतुल

 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on January 19, 2025 07:20
No comments have been added yet.