स्वच्छता की नींव पर राष्ट्र निर्माण
राष्ट्रीय स्वयंसेवक हमें यह याद दिलाने से कभी नहीं चूकता कि भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव की भावना थोड़ी और होनी चाहिए। हालांकि, नरेंद्र मोदी ने नागरिक होने के गौरव को अधिक महत्वपूर्ण बताकर आरएसएस को ही नसीहत दे डाली है। सच में यह राष्ट्रवाद की अधिक मजबूत व टिकाऊ नींव है। नागरिकों को नागरिकता के मूल्य सिखाने के लिए स्वच्छ भारत अभियान देश का सबसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है। केजरीवाल के अस्थिर हाथों से झाड़ू छीनकर और कांग्रेस के आलिंगन से गांधी को छुड़ाकर मोदी ने देश के इतिहास में राष्ट्र की सफाई का सबसे बड़ा अभियान छेड़ा है।
नागरिकता बोध मानव में प्राकृतिक रूप से नहीं आता। इसे लगातार याद दिलाना जरूरी होता है तथा भारत से ज्यादा कहीं और इसकी जरूरत नहीं है, जो अब भी अपने यहां नागरिक निर्मित करने के लिए संघर्ष कर रहा है।
नागरिकता के ख्याल से प्रेरित नागरिक हमेशा पड़ोसियों के बारे में सोचता है फिर चाहे उनकी जाति या वंश कुछ भी क्यों न हो। ऐसे व्यक्ति को ‘लव जेहाद’ जैसे अभियानों से चोट पहुंचती है, जिसके कारण भाजपा ने उत्तरप्रदेश के हाल के उपचुनावों में 11 सीटों में से 8 सीटें खो दीं, जो उचित ही था। मोदी के आधुनिकीकरण के विचार और आरएसएस के बीच विभाजन पैदा हो रहा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसा वाजपेयी व आरएसएस के बीच था। मैं शर्त लगा सकता हूं कि अंत में जीत प्रधानमंत्री की ही होगी।
आधुनिकीकरण की इस परियोजना में मोदी को टेक्नोलॉजी के कारण सफलता की उम्मीद है, जिसमें महात्मा गांधी और पूर्ववर्ती सरकारें विफल रहीं हैं। उन्हें लगता है कि देशभर में स्वच्छता, देशभर में वाई-फाई जैसी बात है। वे कहते हैं कि विकास सिर्फ वृद्धि दर की बात नहीं है पर साथ में वे लोगों के जीवन में गुणवत्ता लाने की बात भी करते हैं और साफ-सुथरा वातावरण इस दिशा में मददगार है। अब नगर पालिकाओं के सामने कम लागत वाली टेक्नोलॉजी उपलब्ध है, लेकिन वे तब सफल होंगी जब हमारे नागरिक प्रयास करेंगे और इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री लोगों का नज़रिया बदलने का प्रयास कर रहे हैं।
मोदी सिंगापुर के महान नेता ली कुआन यू का अनुसरण कर रहे हैं, जिन्होंने यह साबित किया कि स्वच्छता के नैतिक मूल्य पर राष्ट्र निर्माण संभव है। हालांकि, यदि भारत को इस अभियान का शोर व जोर ठंडा होने के बाद भी स्वच्छ रहना है तो मोदी को भी वही करना होगा, जो सिंगापुर ने किया। उन्हें कचरा फैलाने के खिलाफ सख्त कानून बनाने होंगे। आरोग्य व लोक स्वास्थ्य पर सतत निवेश जरूरी होगा और यह पैसा सही जगह खर्च होगा।
यदि किसी एक शब्द से भारत के शहरों व कस्बों को वर्णित किया जाए तो वह शब्द है गंदगी। हममें से कई लोग यह सोचते हैं कि गरीबी व गंदगी का चोली-दामन का साथ है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। कोई गरीब होकर भी साफ-सुथरा हो सकता है। भारत में सबसे गरीब घर में प्राय: सबसे स्वच्छ रसोईघर होते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान गरीब हो गया था, लेकिन इसके शहर अत्यधिक स्वच्छ थे। वास्तव में पूर्वी एशिया हमेशा से ही दक्षिण एशिया की तुलना में अधिक स्वच्छ रहा है। भारत में भी उत्तर की तुलना में दक्षिण भारतीय समुदाय अधिक स्वच्छ हैं (तब भी जब वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा गरीब थे।)
महात्मा गांधी का भी विश्वास था कि नागरिक मूल्य और स्वच्छता राष्ट्रवाद की नींव हैं। लाहौर के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में वे पूर्ण स्वराज्य की बजाय कांग्रेस प्रतिनिधियों की गंदगी फैलाने की आदतों पर अंतहीन बोलते रहे। जब लोगों ने उनसे पूछा कि उन्होंने स्वराज पर उत्तेजनापूर्ण भाषण क्यों नहीं दिया, तो उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता पाने के लिए व्यक्ति को इसके लायक बनना होता है और योग्य बनने के लिए भारतीयों को व्यक्तिगत अनुशासन और साफ-सफाई के मामले में सुधार लाना होगा। मोदी की तरह गांधी का भरोसा था कि नागरिक दायित्व और स्वच्छता राष्ट्रीय गौरव के आधार हैं। मोदी और गांधी में अंतर यह है कि मोदी हमारी दिन-प्रतिदिन की समस्याएं सुलझाने के लिए टेक्नोलॉजी की शक्ति में भरोसा करते हैं। उन्हें भरोसा है कि मेट्रो परिवहन व्यवस्था के साथ स्मार्ट शहर नए नागरिक मूल्य स्थापित करेंगे। मैं कभी-कभी दिल्ली की मेट्रो में सवार होता हूं और मैंने इसे हमेशा स्वच्छ, शांत और कुशल पाया। इसकी वजह से अचानक अजनबियों के बीच भी रिश्ता कायम हो जाता है। मैंने देखा कि लोगों में वह मैत्री व गरिमा पैदा हो गई, जो वे आमतौर पर अपने रिश्तेदारों व मित्रों के बीच दिखाते हैं। मैं ट्रेन में बैठे हर व्यक्ति से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता हूं। जैसे ही मैं ट्रेन से बाहर सड़क पर आता हूं, चारों ओर वहीं गंदगी पाता हूं। अचानक मैं खुद को अलग-थलग महसूस करने लगता हूं।
इससे ज्यादा सद्भावनापूर्ण, ज्यादा मानवीय कुछ नहीं हो सकता कि गहराई में हम यह महसूस करें कि हम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें ऐसे अवसर निर्मित करने होंगे जहां लोग कंधे से कंधा भिड़ाकर काम करके एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और आदर पैदा कर सकें। मोदी की बात में दम है, क्योंकि दिल्ली मेट्रो ने बता दिया है कि आप शहर की संस्कृति बदल सकते हैं। परिवहन का नया साधन नागरिक क्रांति लाने का शक्तिशाली जरिया हो सकता है।
जब कई ज्वलंत समस्याएं सामने हों तो कचरे के बारे में शिकायत करना अजीब लग सकता है। हालांकि, ली कुआन यू ने दुनिया को बता दिया था कि स्वच्छता के मानक पर राष्ट्र निर्माण किया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले सिंगापुर किसी भी भारतीय शहर जितना ही गंदा था, लेकिन आज यह धरती का सबसे स्वच्छ शहर है। सिंगापुर ने बड़ी संख्या में कूड़ादान रखवाए और बहुत सारे टॉयलेट का निर्माण करवाया। इसके साथ उन्होंने जुर्माने की कड़ी व्यवस्था उतनी ही शिद्दत से लागू करवाई। कोई भी भारतीय शहर यह कर सकता है। हमारे सुधारों का यही तो निचोड़ है : संस्थाओं की प्रोत्साहन व्यवस्था को लोकहित से जोड़ा गया तो शासक और शासित दोनों का व्यवहार सुधर सकता है। हमारे सार्वजनिक स्थल गंदे क्यों हैं? यह शिक्षा का काम है या यह सांस्कृतिक समस्या है? निश्चित ही अपनी निजी जगहों पर हम तुलनात्मक रूप से स्वच्छ होते हैं। हम रोज नहाते हैं, हमारे घर साफ होते हैं और किचन तो निश्चित ही चमचमाते होते हैं। हमारी राष्ट्रीय छवि ऐसे भारतीय परिवार की है, जो बड़े गर्व से अपना घर साफ करता है और फिर गंदगी दरवाजे के बाहर फेंक देता है। इसकी संभावना नहीं है कि मोदी देश को स्वच्छ करने को लेकर हमें शिक्षित करना छोड़ दें। यदि वे चाहते हैं कि हम हमारी बची हुई जिंदगी में रोज साफ-सफाई करें, तो उन्हें अपने अगले भाषण में यह कहना होगा : मेरे हमवतन देशवासियो, यदि हम अपना दायरा घर के दरवाजे से एक मीटर आगे बढ़ा दें और उस एक मीटर में कचरा फेंकने की बजाय हम उसे चकाचक साफ कर दें तथा सारा देश ऐसा करने लगे तो भारत स्वच्छ हो जाएगा। यह कोई हवा में किला बनाने वाली बात नहीं है। विदेशों में कुछ जगह लोग घर के बाहर के फुटपॉथ रोज धोकर स्वच्छ करते हैं। एक हजार मील की यात्रा, पहले मीटर से शुरू होती है।
नागरिकता बोध मानव में प्राकृतिक रूप से नहीं आता। इसे लगातार याद दिलाना जरूरी होता है तथा भारत से ज्यादा कहीं और इसकी जरूरत नहीं है, जो अब भी अपने यहां नागरिक निर्मित करने के लिए संघर्ष कर रहा है।
नागरिकता के ख्याल से प्रेरित नागरिक हमेशा पड़ोसियों के बारे में सोचता है फिर चाहे उनकी जाति या वंश कुछ भी क्यों न हो। ऐसे व्यक्ति को ‘लव जेहाद’ जैसे अभियानों से चोट पहुंचती है, जिसके कारण भाजपा ने उत्तरप्रदेश के हाल के उपचुनावों में 11 सीटों में से 8 सीटें खो दीं, जो उचित ही था। मोदी के आधुनिकीकरण के विचार और आरएसएस के बीच विभाजन पैदा हो रहा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसा वाजपेयी व आरएसएस के बीच था। मैं शर्त लगा सकता हूं कि अंत में जीत प्रधानमंत्री की ही होगी।
आधुनिकीकरण की इस परियोजना में मोदी को टेक्नोलॉजी के कारण सफलता की उम्मीद है, जिसमें महात्मा गांधी और पूर्ववर्ती सरकारें विफल रहीं हैं। उन्हें लगता है कि देशभर में स्वच्छता, देशभर में वाई-फाई जैसी बात है। वे कहते हैं कि विकास सिर्फ वृद्धि दर की बात नहीं है पर साथ में वे लोगों के जीवन में गुणवत्ता लाने की बात भी करते हैं और साफ-सुथरा वातावरण इस दिशा में मददगार है। अब नगर पालिकाओं के सामने कम लागत वाली टेक्नोलॉजी उपलब्ध है, लेकिन वे तब सफल होंगी जब हमारे नागरिक प्रयास करेंगे और इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री लोगों का नज़रिया बदलने का प्रयास कर रहे हैं।
मोदी सिंगापुर के महान नेता ली कुआन यू का अनुसरण कर रहे हैं, जिन्होंने यह साबित किया कि स्वच्छता के नैतिक मूल्य पर राष्ट्र निर्माण संभव है। हालांकि, यदि भारत को इस अभियान का शोर व जोर ठंडा होने के बाद भी स्वच्छ रहना है तो मोदी को भी वही करना होगा, जो सिंगापुर ने किया। उन्हें कचरा फैलाने के खिलाफ सख्त कानून बनाने होंगे। आरोग्य व लोक स्वास्थ्य पर सतत निवेश जरूरी होगा और यह पैसा सही जगह खर्च होगा।
यदि किसी एक शब्द से भारत के शहरों व कस्बों को वर्णित किया जाए तो वह शब्द है गंदगी। हममें से कई लोग यह सोचते हैं कि गरीबी व गंदगी का चोली-दामन का साथ है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। कोई गरीब होकर भी साफ-सुथरा हो सकता है। भारत में सबसे गरीब घर में प्राय: सबसे स्वच्छ रसोईघर होते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान गरीब हो गया था, लेकिन इसके शहर अत्यधिक स्वच्छ थे। वास्तव में पूर्वी एशिया हमेशा से ही दक्षिण एशिया की तुलना में अधिक स्वच्छ रहा है। भारत में भी उत्तर की तुलना में दक्षिण भारतीय समुदाय अधिक स्वच्छ हैं (तब भी जब वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा गरीब थे।)
महात्मा गांधी का भी विश्वास था कि नागरिक मूल्य और स्वच्छता राष्ट्रवाद की नींव हैं। लाहौर के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में वे पूर्ण स्वराज्य की बजाय कांग्रेस प्रतिनिधियों की गंदगी फैलाने की आदतों पर अंतहीन बोलते रहे। जब लोगों ने उनसे पूछा कि उन्होंने स्वराज पर उत्तेजनापूर्ण भाषण क्यों नहीं दिया, तो उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता पाने के लिए व्यक्ति को इसके लायक बनना होता है और योग्य बनने के लिए भारतीयों को व्यक्तिगत अनुशासन और साफ-सफाई के मामले में सुधार लाना होगा। मोदी की तरह गांधी का भरोसा था कि नागरिक दायित्व और स्वच्छता राष्ट्रीय गौरव के आधार हैं। मोदी और गांधी में अंतर यह है कि मोदी हमारी दिन-प्रतिदिन की समस्याएं सुलझाने के लिए टेक्नोलॉजी की शक्ति में भरोसा करते हैं। उन्हें भरोसा है कि मेट्रो परिवहन व्यवस्था के साथ स्मार्ट शहर नए नागरिक मूल्य स्थापित करेंगे। मैं कभी-कभी दिल्ली की मेट्रो में सवार होता हूं और मैंने इसे हमेशा स्वच्छ, शांत और कुशल पाया। इसकी वजह से अचानक अजनबियों के बीच भी रिश्ता कायम हो जाता है। मैंने देखा कि लोगों में वह मैत्री व गरिमा पैदा हो गई, जो वे आमतौर पर अपने रिश्तेदारों व मित्रों के बीच दिखाते हैं। मैं ट्रेन में बैठे हर व्यक्ति से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता हूं। जैसे ही मैं ट्रेन से बाहर सड़क पर आता हूं, चारों ओर वहीं गंदगी पाता हूं। अचानक मैं खुद को अलग-थलग महसूस करने लगता हूं।
इससे ज्यादा सद्भावनापूर्ण, ज्यादा मानवीय कुछ नहीं हो सकता कि गहराई में हम यह महसूस करें कि हम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें ऐसे अवसर निर्मित करने होंगे जहां लोग कंधे से कंधा भिड़ाकर काम करके एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और आदर पैदा कर सकें। मोदी की बात में दम है, क्योंकि दिल्ली मेट्रो ने बता दिया है कि आप शहर की संस्कृति बदल सकते हैं। परिवहन का नया साधन नागरिक क्रांति लाने का शक्तिशाली जरिया हो सकता है।
जब कई ज्वलंत समस्याएं सामने हों तो कचरे के बारे में शिकायत करना अजीब लग सकता है। हालांकि, ली कुआन यू ने दुनिया को बता दिया था कि स्वच्छता के मानक पर राष्ट्र निर्माण किया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले सिंगापुर किसी भी भारतीय शहर जितना ही गंदा था, लेकिन आज यह धरती का सबसे स्वच्छ शहर है। सिंगापुर ने बड़ी संख्या में कूड़ादान रखवाए और बहुत सारे टॉयलेट का निर्माण करवाया। इसके साथ उन्होंने जुर्माने की कड़ी व्यवस्था उतनी ही शिद्दत से लागू करवाई। कोई भी भारतीय शहर यह कर सकता है। हमारे सुधारों का यही तो निचोड़ है : संस्थाओं की प्रोत्साहन व्यवस्था को लोकहित से जोड़ा गया तो शासक और शासित दोनों का व्यवहार सुधर सकता है। हमारे सार्वजनिक स्थल गंदे क्यों हैं? यह शिक्षा का काम है या यह सांस्कृतिक समस्या है? निश्चित ही अपनी निजी जगहों पर हम तुलनात्मक रूप से स्वच्छ होते हैं। हम रोज नहाते हैं, हमारे घर साफ होते हैं और किचन तो निश्चित ही चमचमाते होते हैं। हमारी राष्ट्रीय छवि ऐसे भारतीय परिवार की है, जो बड़े गर्व से अपना घर साफ करता है और फिर गंदगी दरवाजे के बाहर फेंक देता है। इसकी संभावना नहीं है कि मोदी देश को स्वच्छ करने को लेकर हमें शिक्षित करना छोड़ दें। यदि वे चाहते हैं कि हम हमारी बची हुई जिंदगी में रोज साफ-सफाई करें, तो उन्हें अपने अगले भाषण में यह कहना होगा : मेरे हमवतन देशवासियो, यदि हम अपना दायरा घर के दरवाजे से एक मीटर आगे बढ़ा दें और उस एक मीटर में कचरा फेंकने की बजाय हम उसे चकाचक साफ कर दें तथा सारा देश ऐसा करने लगे तो भारत स्वच्छ हो जाएगा। यह कोई हवा में किला बनाने वाली बात नहीं है। विदेशों में कुछ जगह लोग घर के बाहर के फुटपॉथ रोज धोकर स्वच्छ करते हैं। एक हजार मील की यात्रा, पहले मीटर से शुरू होती है।
Published on October 23, 2014 04:33
No comments have been added yet.
Gurcharan Das's Blog
- Gurcharan Das's profile
- 400 followers
Gurcharan Das isn't a Goodreads Author
(yet),
but they
do have a blog,
so here are some recent posts imported from
their feed.
